इज्ज़त नहीं बड़ो की आम यही है
हर घर में एक शोर है कोहराम यही है
आया बुढ़ापा थक गये आजा तमाम तर
सुनते है हम बुढ़ापे का अंजाम यही है
कुछ टेबलेट्स पड़ी हुई थी उनके सराहने
पुछा कहा की वक़्त का बादाम यही है
कहते है सभी देखकर माडल अजीब है
कहते है सारे घर का तो सद्दाम यही है
चढ़ जाये उनक पेट तो मुश्किल में सभी हो
खारिज हो उनका गैस तो आराम यही है
ढाह ढाह से इनकी घर का हर एक फर्द परेशान है
घर भर को सड़ाने में तो बदनाम यही है
घर के तमाम फर्द ही करते है कुछ न कुछ
उनकी नज़र आये जो नाकाम ये ही
फफ फफ जो उनकी सुनता है कहता है बस यही
हर वक़्त बड़बढ़ाते है बस काम यही है
अरीबा बड़ो की बात को बर्दाश्त करे हम
तहजीब का तकाजा है इस्लाम यही है
सही कहा आपने, अपने बडो को सम्मान करना ही हमारे सस्ंकार है
ReplyDeleteअच्छी रचना
शुभकामनाये
कुछ टेबलेट्स पड़ी हुई थी उनके सराहने
ReplyDeleteपुछा कहा की वक़्त का बादाम यही है
वर्तमान जीवन शैली और उसके प्रभावों का बखूबी वर्णन किया है आपने ...आपका आभार
achhi rachna hai!!
ReplyDeleteबुढापे के आलम का खूब ज़िक्र किया आपने.
ReplyDeleteसन्देश परक ग़ज़ल.
सलाम.
आपका आभार मेरे ब्लॉग पर आकर उत्साहवर्धन के लिए ...आशा है यह संवाद यूँ ही कायम रहेगा
ReplyDeleteअरीबा बड़ो की बात को बर्दाश्त करे हम तहजीब का तकाजा है इस्लाम यही है
ReplyDeleteआपने बहुत सुन्दर शब्दों में अपनी बात कही है। शुभकामनायें।
अरीबा बड़ो की बात को बर्दाश्त करे हम तहजीब का तकाजा है इस्लाम यही है
ReplyDeletebahut khoob